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भारत में संकटग्रस्त मीडिया स्वतंत्रता

बोल कि लब आजाद हैं...
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अभिव्यक्ति की आजादी उत्तर आधुनिक युग की कुछ-एक सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। पिछली सदी में मीडिया के विभिन्न स्वरूपों के उदय और मूल्यों के कड़े संघर्ष के फलस्वरूप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मूल अधिकार के रूप में स्थापित हो सकी है। बावजूद इसके, इस पर लगातार खतरा भी बरकरार है। आज भी विश्व के कई हिस्सों में पत्रकारों की ताबड़तोड़ हत्याएं की जा रही हैं तो न्यूज मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक पर अंकुश के लगातार प्रयास हो रहे हैं।
वियना स्थित अंतरराष्ट्रीय पे्रस इंस्टीट्यूट ने रिपोर्ट दी है कि 2012 में दुनिया भर में 119 पत्रकार की हत्या कर दी गई। अंतरराष्ट्रीय पे्रस इंस्टीट्यूट 1997 से इस संबंध में हर साल आंकड़े जुटाती है। तब से अब तक इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों की हत्या कभी नहीं हुईं। पत्रकारों की हत्या का यह अब तक का सर्वाधिक आंकड़ा है। अंतरराष्ट्रीय पे्रस इंस्टीट्यूट का कहना है कि सूचनाओं को सार्वजनिक करने से रोकने के लिए पत्रकारों पर लगातार हमले बढ़ रहे हैं। संस्था के मुताबिक, सीरिया और सोमालिया पत्रकारों के काम करने के लिए सबसे खतरनाक जगहें हैं। सोमालिया में इस साल 16 पत्रकार मारे गए। इसके बाद इस सूची में मैक्सिको, पाकिस्तान और फिलीपींस का नाम आता है।
मीडिया की अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की एक अन्य रिपोर्ट में भारत के बारे में रिपोर्ट पेश की गई है, जिसमें कहा गया है कि भारत में पिछले दो-तीन सालों में मीडिया पर अंकुश बढ़ता जा रहा है। इस संस्था द्वारा जारी मीडिया स्वतंत्रता सूचकांक में भारत को 131वें स्थान पर रखा गया है। इस सूची में भारत 2009 में 105वें और 2010 में 122वें स्थान पर मौजूद था। रिपोर्ट कहती है कि भारत मीडिया स्वतंत्रता के मामले में बुरुंडी और अंगोला के ठीक ऊपर है। इसके अलावा इंटरनेटीय स्वतंत्रता के मामले में भी भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। मुंबई हमले के बाद भारतीय प्रशासन ने इंटरनेट माध्यम पर नकेल कसनी शुरू कर दी है, हालांकि वह सार्वजनिक तौर पर किसी भी सेंसरशिप का विरोध करता है।
मीडिया स्वतंत्रता के मामले में फ्रीडम हाउस की एक अन्य रिपोर्ट का कहना है कि भारत में वेब माध्यमों को आंशिक रूप से ही स्वतंत्रता मिली हुई है। गौरतलब है कि तकनीक का प्रचलन बढऩे और नये-नये माध्यमों के उपयोग बढऩे के बाद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस और तेज हो गई है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि न्यू मीडिया के पहले की स्थिति बहुत अच्छी थी। इसके पहले जो उपलब्ध माध्यम थे, उन पर लिखने-बोलने वालों को समय-समय पर इन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
यह कहना बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं है कि भारत वैयक्तिक आजादी के मामले में एक बेहद असहिष्णु देश है, जो बिना जायज कारण के किताबों से लेकर मीडिया पर प्रतिबंध थोपने की कोशिश करता है। हाल की कुछ घटनाओं ने साबित किया है कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर नेता किस तरह व्यक्तिगत कुंठा के जरिये बोलने की आजादी का गला घोंटते हैं। बाल ठाकरे की मौत के बाद मुंबई ठप होने पर मुंबई की एक युवती ने सवाल उठाया तो उसे पुलिस ने उसकी सहेली समेत गिरफ्तार कर लिया। सहेली का अपराध बस इतना था कि उसने युवती की पोस्ट को लाइक किया था। यह घटना यह सिद्ध करती है कि ऐसी कार्रवाई करने वाले पुलिसकर्मियों और इसे बढ़ावा देने वाले नेताओं को इन नये माध्यमों और स्वतंत्रता संबंधी कानूनों के बारे में कुछ नहीं पता है। हालांकि, इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया हुई और अंतत: उन लड़कियों की रिहाई तो हुई ही, एक हफ्ते बाद मुंबई हाईकोर्ट ने उस मजिस्ट्रेट का भी ट्रांसफर कर दिया, जिसने लड़कियों को जेल भेजने का आदेश दिया था।
इससे पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को लेकर ऐसा ही अज्ञानता भरा कारनामा मुंबई पुलिस ने दिखाया और अपनी फजीहत कराई। जबकि, जिस आरोप में असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किया गया, वह कोई अपराध ही नहीं है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने एकाधिक निर्णय आ चुके हैं, जिससे हमारे देश की पुलिस अनभिज्ञ है। उक्त दोनों मामलों में प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने तल्खतर प्रतिक्रिया देते हुए ऐसा करने वाले पुलिसकर्मियों को जेल भेजने की बात कही। इसी तरह का असहिष्णु कृत्य पश्चिम बंगाल प्रशासन ने किया था, जब एक प्रोफेसर अंबिकेश बनर्जी को ममता बनर्जी का कार्टून बनाने के आरोप में जेल में डाल दिया गया था।
असम हिंसा के दौरान अफवाहें फैलने की वजह से देश भर जब पूर्वोत्तर के लोगों का पलायन शुरू हो गया कहा गया तो कहा गया कि इसके लिए फेसबुक आदि सोशल मीडिया जिम्मेदार है। सरकार ने निगरानी एजेंसियों को सोशल मीडिया पर निगाह रखने को कहा और उस समय भी प्रशासन ने इसी तरह की कार्रवाई को अंजाम दिया। कई जाने माने पत्रकारों और नेताओं के ट्विटर और फेसबुक अकाउंट बंद कर दिए गए। यह भी गौर करने वाली बात है कि संप्रग सरकार मुंबई हमले के बाद से ही मीडिया नियमन को लेकर बहस को हवा देती रही है। पिछले संसद सत्र में सांसद मीनाक्षी नटराजन प्राइवेट मेंबर विधेयक भी ला चुकी हैं, हालांकि इसे पेश नहीं किया जा सका था। संभव है मौजूदा सत्र में सरकार इसे पास कराने की कोशिश करे।
भारतीय राजनीति और प्रशासन अभी आधुनिक तकनीक और उनके उपयोग से तो पिछड़े ही हैं, वे उन मूल्यों के मामले में भी काफी पीछे हैं, जिन्हें अब तक पूरी दुनिया अपना चुकी है और आगे बढ़ रही है, जबकि हम 65 साल पहले अपनाए गए अपने ही संवैधानिक प्रावधानों की इज्जत नहीं कर पा रहे। मीडिया स्वतंत्रता के मामले में भारत का फिसड्डी होना इस बात की पुष्टि करता है।

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