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कौओं के झुंड में एक दिन एक कौए ने कहा- हम लोग बहुत पाप करते हैं। आज से चलो संकल्प लेते हैं कि कभी मांस नहीं खाएंगे। उसकी बातों से कुछ प्रभावित हो गए और उसके साथ आ गए। एक एक कर अंतत: सब बोले कि आज से मांस नहीं खाएंगे। कुछ दिन बाद एक मरा हुआ जानवर दिखा। उस पर कुछ कौवे टूट पड़े। उन्हें देख कर एक एक कर सब चले गए। जिस कौवे ने प्रस्ताव किया था, वह नहीं गया। वह अकेला अलग ही बैठा रहा। थोड़ी देर में एक हंस उधर से गुजरा। उसने पूछा- भाई, सब लोग इकट़ृठे हैं तो वे जनाब अकेले क्यों बैठे हैं? सभी कौवों ने एक स्वर में कहा- उसने मांस खाया है। इसलिए हमने उसका बहिष्कार कर दिया है। हम लोगों ने संकल्प लिया है कि अब मांस नहीं खाएंगे। देश की संसद में आज कल यही चल रहा है। नेताओं के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वाली टीम अन्ना अपराधी हो गई है और नेता पवित्र गाय।
एक कुतर्क के खिलाफ सावधान कर देना चाहता हूं कि नेता या सांसद कहने का अर्थ पूरे 545 सदस्य नहीं होता। संसद में अपराधी का अर्थ सिर्फ उन लोगों से है जो वास्तव में हत्या और बलात्कार या अपहरण के आरोपी हैं, न कि पूरी संसद से। सोमवार और मंगलवार को सदन की कार्यवाही में देखने को मिला कि देश की संसद अन्ना हजारे और उनकी टीम के विरोध में अभूतपूर्व ढंग से उतर आई है। सभी सांसदों का एक सुर में कहना है कि ये लोग संसद का अपमान कर रहे हैं। इसके लिए अलग-अलग तर्क दिए जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि संसद की कार्रवाई पर सवाल उठ रहा है। कोई कह रहा है कि सांसदों को गाली दी जा रही है। कोई कह रहा है कि टीम अन्ना देश द्रोही है, इसे संसद में बतौर मुलजिम लाना चाहिए। कोई कह रहा है कि उन पर मुकदमा चलाना चाहिए। लेकिन हैरानी है कि राजनीतिक जमात में पूरी चर्चा सिर्फ संसद की गरिमा से जुड़ी है। संसद के गरिमा की यह चर्चा अब वैसी हो गई है, जैसे बेटी किसी से दिल लगा बैठै तो पूरी खाप पंचायत उसकी जान लेने पर उतारू हो जाती है।
इस पूरी चर्चा के बीच एक भी नेता ने यह नहीं कहा कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई कि कोई सिविल सोसाइटी का झंडाबरदार आए और कहे कि अब आरटीआई कानून लाओ। अब लोकपाल बिल लाओं। अब व्हिसलब्लोअर विधेयक लाओ। किसी नेता ने यह जायज सवाल क्यों नहीं किया कि 1968 में प्रशासनिक सुधार आयोग के बाद चौथी लोकसभा में पेश किया गया लोकपाल विधेयक 43 सालों से क्यों लटका है? अन्ना आंदोलन के समय संसद की ओर से लिखित आश्वासन के बाद भी। यह किसी ने क्यों नहीं पूछा कि देश भर में ताबड़तोड़ हो रहे घोटालों को नियंत्रित करने के लिए सरकार की भविष्य-योजना क्या है? क्या जनता का पैसा इसी तरह घोटालों की भेंट चढ़ता रहेगा और हम संसद की गरिमा के नाम पर खामोश रहेंगे?
वैसे भी, यह गरिमा का सवाल काफी दिलचस्प है। जिन शरद यादव को आज टीम अन्ना की बात बहुत चुभ रही है, उन्हीं शरद यादव ने किरण बेदी और साथियों के लिए संसद में धमकी भरे लहजे में कहा था कि इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। उस भाषण के शब्द और शरद यादव का लहजा मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत नागवार गुजरा था। अपने ही नागरिकों को धमकी, उनपर तरह तरह के झूठे इल्जाम, छल-कपट ओर निर्लज्जता की हद तक जाकर बयानबाजी से संसद की गरिमा नहीं आहत होती। उसे कह देने से आहत हो जाती है। आंदोलन खत्म होने के बाद जिस तरह पूरी टीम के खिलाफ सरकार और कांग्रेस की ओर से खेल खेला गया, उसके बाद अन्ना टीम के पास दो ही चारा था। या तो चुपचाप बैठते या और तीव्रता के साथ जनता के बीच जाते। उन्होंने और तल्ख होना पसंद किया।
मुझे अन्ना हजारे की टीम से कोई सहानुभूति भी नहीं है, समर्थन दूर की बात है। लेकिन मैं उस जनभावना के साथ हूं जो रोजमर्रा के जीवन से लेकर अन्ना के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान आंदोलन के समय दिखी है।
इक्कीस मार्च को केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने एक लेख लिखा। यह लेख जागरण में छपा था। हो सकता है और भी कहीं छपा हो। उस लेख में अश्विनी कुमार ने वर्तमान भारतीय राजनीतिक तंत्र पर जो सवाल उठाए हैं, वे सारे सवाल करीब-करीब अन्ना टीम के सवालों से मिलते हैं और यह मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि वे सवाल करोड़ों जनता के भी है। देश का हर बच्चा जानना चाहेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में 43 साल में एक विधेयक क्यों पारित नहीं किया जा सका। लोकपाल गठित करने की सिफारिश मोरार जी भाई देसाई के अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने की थी, जिसे 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन ने गठित किया था।
यह सवाल उठता है कि क्या सांसदों और सभी राजनीतिक पार्टियों के भड़कने की वजह टीम अन्ना की अमर्यादित टिप्पणी ही है ? पिछले आंदोलन में तो इससे ज्यादा कड़ी बातें कही गईं। अरविंद केजरीवाल की भाषा वही है जो एक साल पहले थी। फिर राजनीतिक दलों और नेताओं के भड़कने की क्या वजह है। पिछले एक साल में जो बदलाव आया है, वह यह कि टीम अन्ना ने अपने आंदोलन का दायरा बढ़ा दिया है। लोकपाल को लेकर एक साल से चल रहा सियासी नाटक किसी को भी तल्ख होने को मजबूर करेगा, खासकर तब, जब बुराई के खिलाफ आने वाले को ही बुरा कहा जाए। इस बार तल्ख होने के साथ टीम अन्ना दागी सांसदों की सूची के साथ सरकार और राजनीतिक पार्टियों पर हमलावर हो गई है। दागी और भ्रष्ट नेताओं की बात करने पर इसकी जद में सारे दल आ जाते हैं। पांच राज्यों के चुनावों के बाद टीम अन्ना ने पत्र लिखकर पार्टी प्रमुखों से पूछा था कि उनकी ऐसी क्या मजबूरी थी कि दागी उम्मीदवारों को टिकट दिए गए। फिर अब अरविंद केजरीवाल ने केंद्र में दागी मंत्रियों की सूची बना डाली। दरअसल, इस तरह का अभियान सब नेताओं और दलों पर बहुत भारी पड़ने वाला है, क्योंकि दबंगों और दागियों के बिना किसी पार्टी का काम नहीं चलता।
रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के समय जब उन्हें अप्रत्याशित सर्मथन मिला तो लालकृष्ण आडवाणी ईमानदारी दिखाते हुए एक बात स्वीकारी थी कि दरअसल, अन्ना को इस तरह समर्थन पाने का मौका हम नेताओं ने ही दिया है। विधायन के मसले पर इस तरह सिविल सोसाइटी का मुखर होना बेशक लोकतंत्र की सेहत के लिए नुकसानदेह है, लेकिन यह मौका क्यों आया, इस पर सोचने को कोई तैयार नहीं है। अन्ना आंदोलन, भ्रष्टाचार, काली पूंजी और इन मसलों पर राजनीतिक उदासीनता पर सबसे हैरान करने वाला रवैया भारतीय बु्द्धिजीवियों का है। कुछ भटकी हुई कथित मार्क्सवादी आत्माओं को अन्ना आंदोलन से लेकर टूजी घोटाले तक में अमेरिकी हाथ दिखता है।
जो लोग कहते हैं कि लोकपाल पर टीम अन्ना का मसौदा भारतीय संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है, उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उनके पास भ्रष्टाचार से निपटने का क्या मसौदा है? क्या संविधान का संघीय ढांचा, उसका लोकतांत्रिक स्वरूप भ्रष्टाचार और काली पूंजी के बगैर नहीं टिक सकता? क्या संविधान की मूल भावना अरबों के घोटालों से आहत नहीं होती? पूरी बहस में नेताओं, कुछ बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक हिस्सा (जो अब न्यायाधीश की भूमिका में है), का पक्ष तो यही है की अन्ना और उनकी टीम ही सारी समस्याओं की जड़ है। तो मेरी राय है कि उन्हीं को फांसी दे दी जाए। संसद में इस बात पर सहमति बनाने में भी आसानी होगी।
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