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ईमानदारी क्या कोई गूलर का फूल है?

बोल कि लब आजाद हैं...
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समाजवादी  चिन्तक किशन पटनायक का कहना था कि आज़ादी के बाद देश में जिस चीज़ पर सर्वाधिक चर्चा हुई है, वह भ्रष्टाचार है. भ्रष्टाचार हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी ज्यादा चर्चा का विषय बना है . बावजूद इसके भारतीय बुद्धिजीवियों ने  भ्रष्टाचार को कभी एक विषय के तौर पर नहीं लिया, इसीलिए आजतक इसका कोई समाधान नहीं निकल पाया है. मौजूदा समय में लगातार एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं और निकट भविष्य में इनपर कोई लगाम लग पाना मुमकिन नहीं दिख रहा. कामनवेल्थ, टूजी के बाद भी अलग अलग राज्यों में करीब एक दर्जन बड़े घोटाले सामने आए. उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तराखंड में घोटाले उजागर हुए. हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में बजट सत्र घोटालों की चपेट में हैं. क्या भ्रष्टाचार समाज की अपरिहार्यता है या विकृति है, जो हमारे नियंत्रण से बहार हो चुकी है?

यदि हम पड़ताल करें तो पाएंगे कि भारत जब एक राष्ट्र की परिकल्पना मात्र था, भ्रष्टाचार तब से हमारी सबसे बड़ी समस्या बना हुआ है. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी भी अपने आसपास मौजूद भ्रष्टाचार से  त्रस्त थे. अधिनियम-1935 के तहत पहली बार भारत में छह प्रान्तों में स्वदेशी सरकारें बनी थीं. इन सभी में कदाचार और गड़बड़ियां इतनी अधिक थीं कि  मध्यप्रांत में एनबी खरे को प्रधानमंत्री (तब मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री होता था) पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. गांधी जी लगातार आगाह कर रहे थे कि हम कमज़ोर पड़ रहे हैं. 1938 में गांधी जी ने ‘हरिजन’ में लिखा कि यदि कांग्रेस से अवैध और अनियमित तत्वों की सफाई नहीं होती तो आज जो इसकी शक्ति है, वह ख़त्म हो जाएगी. 1939 में दुसरे विश्वयुद्ध से उत्पन्न हालत में कोंग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया तो गांधी जी ने इसका अलग तरह से स्वागत किया. उन्होंने खुश होकर कहा था कि इससे हमें कोंग्रस में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार की सफाई करने में मदद मिलेगी. 1939 में एक बार उन्होंने गांधी सेवा संघ के कार्यकर्ताओं से कहा कि मैं समूची कांग्रेस पार्टी का दाह-संस्कार कर देना बेहतर समझता हूं, बजाय इसके कि इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार बर्दाश्त करना पड़े. भ्रष्टाचार व्यवस्थागत मसला है या चरित्रगत, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है, पर गांधी जी इसे चरित्र का मसला मानते थे.  वे लगातार चरित्र के परिष्कार की वकालत करते रहे.

26 नवंबर, 1949 को भारतीय संविधान की स्वीकृति के समय संविधान सभा में अपने समापन भाषण  में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की मुख्य चिंताओं में से भ्रष्टाचार भी एक था. उन्होंने कहा था कि ‘‘यदि लोग, जो चुनकर आयेंगे, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तिओं के द्वारा होता है, जो इस पर नियंत्रण करते हैं। भारत को इस समय ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों तथा देश के हित को सर्वोपरि रखें।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में देश जीप घोटाले का गवाह बना. इसके बाद 1951 में साइकिल आयात घोटाला, 1957 में मुंद्रा घोटाला प्रकाश में आया. यह वह समय था जब देश में स्वतंत्रता आन्दोलन से विरासत में मिले आदर्शों और मूल्यों की गूंज थी. पंडित नेहरु भी आज़ादी के पहले और बाद लगातार कोंग्रेस संगठन के कार्यकर्ताओं को भ्रष्टाचार को लेकर आगाह करते रहते थे. 1955 में नेहरू जी लिखा की हमने वर्षों की मेहनत से पाया आत्मबल खो दिया है. हमारी ताकत लगातार क्षीण होती जा रही है. हम भ्रष्टाचार में फंसते जा रहे हैं. दुर्भाग्य से उनकी अपनी बेटी सत्तासीन हुई तो भ्रष्टाचार अब तक के सबसे वीभत्स रूप में सामने आया. खुद इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार की सिद्धि और उनका चुनाव निरस्त होना, फिर देश भर में भ्रष्टाचार और मंहगाई के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की अगुआई में आन्दोलन और फिर आपातकाल लागू होना. आपातकाल राजनीति और प्रशासन में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार की भयावह परिणति ही था. 1950 से लेकर 1980 तक लाइसेंस राज रहा, जिसे भ्रष्टाचार का पर्याय माना जाता है. मगर उसके बाद की स्थितियां ज्यादा खराब हुईं.

घोटालों में सबसे ज्यादा असरकारी और चर्चित रहा 1986 में उजागर हुआ बोफोर्स कांड. इसमें मिस्टर क्लीन की छवि वाले राजीव गांधी और ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम प्रमुखता से उछला. इसमें आरोप था कि तोपों का सौदा हथियाने के लिए स्वीडन की कंपनी ने भारतीय नेताओं को 64 करोड़ रूपये घूस दिए. बोफोर्स का जिन्न इतना शक्तिशाली था कि अभी भी जब तब बोतल से बाहर आकर कांग्रेस को हलकान कर जाता है.

90 के दशक में पूंजीवाद आने के साथ साथ घोटालों का चरित्र बदल गया. लाइसेंस राज ख़त्म हुआ और बाजारवाद आया. लेकिन दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार मिटने की जगह और मज़बूत ही हुआ. आवारा पूंजी ने घोटालेबाजों को चकाचक स्कोप मुहैया कराया. उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत के बाद  होने वाले घोटालों में चारा घोटाला, हर्षद मेहता कांड, पामोलियन आयल कांड, संचार घोटाला, हवाला कांड, केतन पारीख कांड, कारगिल ताबूत घोटाला, ताज कोरिडोर घोटाला, तेल के बदले अनाज घोटाला, सत्यम घोटाला, हसन अली, वोट के बदले नोट, सुकना भूमि घोटाला, ओडीशा खनन घोटाला, मधु कोड़ा कांड, उत्तर प्रदेश में अनाज घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला, टूजी घोटाला, उत्तर प्रदेश में मनरेगा और एनएचआरएम घोटाला, केजी बेसिन, एस-बैंड आदि मामले हैं. ये सभी इतनी बड़ी रकम वाले मामले हैं कि आम आदमी सुनते ही चकरा जाता है.

संविधान के अंगीकार किए जाने के दौरान ही डॉ. अंबेडकर ने भी भाषण करते हुए कहा था कि ‘‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। कौन कह सकता है कि आने वाले समय में भारतीय राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? उनकी आशंका सही निकली. आज वे होते तो अपने नाम पर हो रहे कार्यों पर महज खीझते. डॉ. राजेंद्र प्रसाद और अंबेडकर का डर साठ-पैंसठ सालों में सच साबित हो चूका है. संविधान की उपयोगिता के बारे में उनकी भावी आशंकाएं मूर्तरूप में हमारे सामने हैं। नवनिर्वाचित सरकार के मंत्रिमंडल में दागी नेताओं की भीड़ इस बात का सबूत है. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते रहने वाले लोहिया के तथाकथित वारिस भ्रष्टाचार का कीर्तिमान कायम कर रहे हैं.

अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ मिला अप्रत्याशित समर्थन और फिर आपराधिक छवि वाले नेताओं का रिकॉर्ड मतों से चुन कर विधान सभा में पहुंचना देश की जनता के विरोधाभासी चरित्र को दर्शाता है. यह सबूत है कि हमारे देश की जनता ने अभी भ्रष्टाचार को नाकारा नहीं है. भ्रष्टाचार को जिस भी नज़रिए से देखें, पर इसे एक राष्ट्रव्यापी समस्या मानने से इनकार नहीं किया जा सकता. हमें इस बात की तह तक जाने की जरूरत है कि जब कि भ्रष्टाचार के अभूतपूर्व स्थिति में पहुंच चुकने के बाद भी हम इसे लेकर परेशानी की हद तक असहज क्यों नहीं हैं. संसद में लोकपाल विधेयक का अवशेष अपने पुनुरुद्धार की प्रतीक्षा कर रहा है. जाने नेतागण उसे जीवन देंगे या उसका दाह-संस्कार करके भ्रष्टाचार के लिए निष्कंटक मार्ग तैयार करेंगे.

मेरी निगाह में समस्या उसी ‘योग्यता, ‘ईमानदारी और ‘चरित्र की है, जिसकी दरकार डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अंबेडकर आदि को संविधान के निर्माण के समय थी। आज भी देश को आगे ले जाने के लिए हमें योग्य, ईमानदार और चरित्रवान लोगों की जरूरत है। आईपीएस नरेन्द्र कुमार की क्रूर हत्या हमारे राजकीय भ्रष्टाचार और भ्रष्ट प्रशासनिक ढांचे का प्रमाण है.

क्या ईमानदारी कोई आकाश-कुसुम है, जिसके बारे में हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं? क्या ईमानदारी कोई गूलर का फूल है. जिसके बारे में लोकधारणा है कि इसे पाया नहीं जा सकता, मगर यदि पा लिया जाए तो फिर कोई भी काम दुह्साध्य नहीं रह सकता! मेरी निगाह में तो ईमानदारी एक सुसाध्य वस्तु है जो कहीं खो गई है और 121 करोड़ हिंदुस्तानी मिलकर उसे ढूंढ रहे हैं?

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